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24. Jesus The Seed That Must Die

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24. यीशु, वह बीज जिसे मरना होगा 

यीशु के जीवन के अपने वर्णन में, यहुन्ना अध्याय बारह में एक बदलाव करता है। अब उसका केंद्र मसीह के क्रूस पर चढ़ाए जाने के सप्ताह की घटनाओं की ओर जाता है। लाज़र के मृतकों में से जिलाए जाने के बाद वातावरण उत्साह से भरा था, क्योंकि यह यहूदी लोगों के लिए मसीह के आने का एक संकेत था। हर कोई उसे देखना और सुनना चाहता था। 18इसी कारण लोग उससे भेंट करने को आए थे क्योंकि उन्होंने सुना था, कि उसने यह आश्चर्यकर्म दिखाया है। 19तब फरीसियों ने आपस में कहा, “सोचो तो सही कि तुम से कुछ नहीं बन पड़ता। देखो, संसार उसके पीछे हो चला है। (यहुन्ना 12:18-19) फसह के पर्व की तैयारी में हजारों यहूदी लोग कई नजदीकी और सुदूर देशों से यरूशलेम आ रहे थे। उनके साथ यूनानी अन्यजाती के परमेश्वर का भय मानने वाले, या यहूदी विश्वास में परिवर्तित हुए लोग भी आ रहे थे।

 

 

20जो लोग उस पर्व में भजन करने आए थे उनमें से कई यूनानी थे। 21उन्होंने गलील के बैतसैदा के रहनेवाले फिलिप्पुस के पास आकर उससे विनती की, “श्रीमान्, हम यीशु से भेंट करना चाहते हैं”। 22फिलिप्पुस ने आकर अन्द्रियास से कहा; तब अन्द्रियास और फिलिप्पुस ने यीशु से कहा। 23इस पर यीशु ने उनसे कहा, “वह समय आ गया है, कि मनुष्य के पुत्र की महिमा हो। 24मैं तुमसे सच-सच कहता हूँ, कि जब तक गेहूँ का दाना भूमि में पड़कर मर नहीं जाता, वह अकेला रहता है परन्तु जब मर जाता है, तो बहुत फल लाता है। 25जो अपने प्राण को प्रिय जानता है, वह उसे खो देता है; और जो इस जगत में अपने प्राण को अप्रिय जानता है; वह अनन्त जीवन के लिये उसकी रक्षा करेगा। 26यदि कोई मेरी सेवा करे, तो मेरे पीछे हो ले; और जहाँ मैं हूँ वहाँ मेरा सेवक भी होगा; यदि कोई मेरी सेवा करे, तो पिता उसका आदर करेगा।” (यहुन्ना 12:20-26)

 

यीशु का मन से अपनाने वाला हृदय

 

यीशु के बारे में ऐसा क्या था जिसने उसे इतना आकर्षक बनाया? ऐसा क्या था जिसने लोगों को उसके पीछे चलने के लिए अपना सब कुछ छोड़ उसके साथ रहने को विवश किया? इसके बारे में सोचें। वो आज भरमार में पाए जाने वाले विश्वास करो चंगाई पाओ या आत्म-सहायता गुरुओं की तरह नहीं था। उसने समृद्धि, खुशी, या आत्म-ज्ञान का वादा नहीं किया; वास्तव में, उसने इससे काफी विपरीत पेशकश की। इसके बजाय, उसने स्वयं को खाली करने के बारे में बात की, फिर भी सभी राष्ट्रीयताओं और सामाजिक वर्गों के लोग उसके शब्दों को थाम उसके पास खिंचे चले आए। जब लोग यीशु के आस-पास थे, तो उन्हें पता था कि वे स्वीकार किए गए हैं। हम सभी में स्वीकृति और सच्चाई के लिए व्यापक भूख की सार्वभौमिक आवश्यकता है। हम उन लोगों की ओर सहज रूप से आकर्षित होते हैं जो इसे प्रतिबिंबित करते हैं।

 

एक बार जॉर्ज वाशिंगटन कुछ अन्य पुरुषों के साथ घुड़सवारी करते हुए एक बगैर पुल की तेजी से बहने वाली नदी पर पहुँचे। हालांकि, नदी में एक छिछले स्थान पर घुड़सवारी कर इसे पार किया जा सकता था। जैसे ही वे पानी में प्रवेश करने वाले थे, एक पद यात्री वहाँ आया जिसने जॉर्ज वॉशिंगटन से पूछा कि क्या वह उसके साथ उस पार तक सवारी कर सकता है। जब सभी लोग दूसरी तरफ सुरक्षित रूप से पहुँच गए तो उस आदमी से पूछा गया कि उसने राष्ट्रपति से ही सवारी के लिए क्यों पूछा। इस व्यक्ति ने जवाब दिया कि उसे नहीं पता था कि वह राष्ट्रपति थे, लेकिन उसने नदी के पास आते सभी पुरुषों के चेहरों को गौर से देखा, और वाशिंगटन का चेहरा ही एकमात्र ऐसा था जिस पर स्वीकृति की झलक थी।

 

जब कोई मसीह के अनुयायियों की गवाही पढ़ता है, यह स्पष्ट होता है कि वह न केवल उनकी शिक्षा थी जिसकी ओर वे खींचे गए थे, बल्कि वे उसके चरित्र, यानी, स्वयं मसीह के वास्तविक व्यक्ति की ओर आकर्षित हुए थे। उसने दूसरों के लिए समय निकला। उसने सभी के लिए स्वीकृति दिखाई; बच्चों, गरीबों, विकलांग, लकवा ग्रस्त, कुष्ठ रोगी, वेश्याओं और यहाँ तक ​​कि चुंगी लेने वालों के लिए भी। यीशु मानवता के लिए परमेश्वर का चेहरा है। अगर अनुग्रह का चेहरा है, तो यह यीशु है। कोई आश्चर्य नहीं कि लोग उसके पास खिंचे चले आए और उनके निकट रहना चाहते थे।

 

इस खंड में जिसे हम पढ़ रहे हैं, उसमें कुछ यूनानी लोग फसह के पर्व में आए थे। वे यूनानी यहूदी नहीं थे, लेकिन यूनानी गैर-यहूदी जो यरूशलेम में यहूदियों के वार्षिक पर्व के लिए भूमध्य सागर के पार यात्रा कर पहुँचे थे। उन्हें फिलिप्पुस नामक शिष्य की तलाश थी और उन्होंने यीशु से मिलने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने फिलिप्पुस की तलाश क्यों की? ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि फिलिप्पुस एक यूनानी नाम था (मैसेडोन के फिलिप्पुस के समान नाम, अलेक्जेंडर द ग्रेट के पिता)। शायद, उन्होंने सोचा होगा कि अगर वे किसी ऐसे व्यक्ति से संपर्क करते हैं जिसकी उनके अनुसार यूनानी विरासत हो सकती है तो उन्हें विशेष पक्ष मिल सकता था और उन्हें यह उम्मीद थी कि फिलिप्पुस यीशु से उनका परिचय करवाएगा।

 

उस समय तक, यीशु के अधिकांश अनुयायी उसके अपने लोगों, यहूदियों, में से आए थे, लेकिन यह इस तरह से बदलने वाला था कि इस समय तक शिष्य इसकी कल्पना करने में भी सक्षम नहीं होंगे। क्या आप प्रभु यीशु के साथ उसकी खूबसूरत आँखों और स्वीकृति भरे चेहरे की ओर देखते हुए एक घंटा बिताना पसंद नहीं करेंगे? यहूदियों के लिए पिछले साढ़े तीन सालों की अपनी सेवकाई में, शायद उसकी प्रसिद्धि, उसका नाम, और उसकी प्रतिष्ठा पहले ही फैलनी शुरू हो चुकी थी।

 

यहुन्ना इसका कोई जिक्र नहीं करता है, लेकिन अन्य तीन सुसमाचार लेखकों में से प्रत्येक ने यह प्रमाणित किया है कि जब यीशु ने एक गधे पर यरूशलेम में – यरूशलेम पर अपने शासन की घोषणा करते हुए प्रवेश किया, तो उसने मंदिर क्षेत्र में जा कर चुंगी लेने वालों की पीढ़ियों को उलट दिया। अन्य-जातियों के आंगन में कबूतर बेचने वालों को भी इसी व्यवहार का सामना करना पड़ा। यीशु ने उनसे कहा, "क्या यह नहीं लिखा है, कि मेरा घर सब जातियों के लिये प्रार्थना का घर कहलाएगा? पर तुमने इसे डाकुओं की खोह बना दी है (मरकुस 11:17)। ऐसा हो सकता है कि इन लोगों ने एक दिन पहले यीशु के उस जज़्बे को देखा, जहाँ मंदिर को परमेश्वर के घर के रूप में पुन: स्थापित किया जा सके जहाँ सभी लोग, न केवल यहूदी ही परमेश्वर की आराधना कर सकते हों। परमेश्वर चाहता है कि सभी राष्ट्र उसे खोजें।

 

प्रश्न 1) आपको किस बात ने प्रभु यीशु की ओर आकर्षित किया? क्या यह आपके जीवन में एक विशिष्ट आवश्यकता के कारण था? बाँटें कि आपको यीशु मसीह के व्यक्ति के पास किस बात ने आकर्षित किया।

 

वह जो कुछ भी था जिसने आपके अनुसार आपको प्रभु यीशु की ओर आकर्षित किया, वह आपके भीतर परमेश्वर का कार्य था, क्योंकि कोई भी व्यक्ति परमेश्वर के कार्य के बिना मसीह के पास नहीं आ सकता है। यीशु ने कहा;

 

कोई मेरे पास नहीं आ सकता, जब तक पिता, जिसने मुझे भेजा है, उसे खींच न ले; और मैं उसको अंतिम दिन फिर जिला उठाऊँगा। (यहुन्ना 6:44)

 

वह समय गया है

 

परमेश्वर ने आपके और मेरे जीवन में सभी प्रकार की चीजें हमें प्रभु यीशु मसीह की ओर आकर्षित करने के लिए उपयोग कीं हैं, वैसे ही जैसे उसने इस खंड में यूनानियों के साथ किया। जब अन्द्रियास और फिलिप्पुस प्रभु यीशु के पास अपना अनुरोध लेकर आए, तो मसीह ने उत्तर दिया कि आखिरकार समय आ गया था, यानी, क्रूस पर कष्ट सहने के द्वारा उसकी महिमा का समय। यीशु ने उत्तर दिया, वह समय आ गया है, कि मनुष्य के पुत्र की महिमा हो” (पद 23)। पिछले साढ़े तीन वर्षों की सेवकाई में कम से कम दो उदाहरणों में, यीशु ने एक विशिष्ट समय के बारे में बात की थी जिसका वह पिता की महिमा करने के लिए इंतजार कर रहा था। यह एक शाब्दिक एक घंटे का समय नहीं था, लेकिन एक छोटी अवधि, एक कार्य, जिसमें वह पिता को महान महिमा दिलाएगा। जब उसकी माँ, मरियम ने उनसे गलील में काना में विवाह में अंत:क्षेप करने के लिए कहा था, तो उसने इस समय के बारे में बात की थी;

 

यीशु ने उससे कहा, “हे महिला मुझे तुझसे क्या काम? अभी मेरा समय नहीं आया।” (यहुन्ना 2:5)

 

दोबारा, जब यीशु मंदिर क्षेत्र में शिक्षा दे रहा था, तो याजकों और फरीसियों ने उसे तब गिरफ्तार करने की मांग की, जब यीशु ने उन्हें यह सच बताया था कि पिता ने उसे भेजा था, लेकिन कोई भी उस पर हाथ नहीं डाल सका क्योंकि फसह के मेमने के बलिदान का समय अभी तक नहीं आया था;

 

28तब यीशु ने मन्दिर में उपदेश देते हुए पुकार के कहा, “तुम मुझे जानते हो और यह भी जानते हो कि मैं कहाँ का हूँ: मैं तो आप से नहीं आया परन्तु मेरा भेजनेवाला सच्चा है, उसको तुम नहीं जानते। 29मैं उसे जानता हूँ; क्योंकि मैं उसकी ओर से हूँ और उसी ने मुझे भेजा है। 30इस पर उन्होंने उसे पकड़ना चाहा तौभी किसी ने उस पर हाथ न डाला, क्योंकि उसका समय अब तक न आया था। (यहुन्ना 7:28-30)

 

इसकी बहुत अधिक संभावना है कि यीशु यूनानी लोगों से मिला होगा, लेकिन यहुन्ना इसे नहीं बताता है। वह हमें यह बताता है कि गैर-यहूदी लोगों का यीशु को खोजना एक संकेत था कि समय आ गया है, अर्थात, वह समय आ गया था जब यीशु आज्ञाकारिता के एक अंतिम कार्य से पिता की महिमा करेगा। प्रभु ने आगे कहा;

 

मैं तुमसे सच-सच कहता हूँ, कि जब तक गेहूँ का दाना भूमि में पड़कर मर नहीं जाता, वह अकेला रहता है परन्तु जब मर जाता है, तो बहुत फल लाता है। (यहुन्ना 12:24)

 

प्रश्न 2) क्या यीशु 24वें पद में स्वयं के बारे में बात कर रहा है या सबके बारे में? उसका इस प्रतीक से क्या मतलब था कि जब तक गेहूँ का दाना भूमि में पड़कर मर नहीं जाता?

 

वो बलिदान का दाना जिसे मरना होगा

 

यीशु ने जो कुछ भी किया वह सब उनके लिए एक नमूना था जो उसके पीछे चलेंगे। जमीन पर गिरने वाले दाने की समानता में, यह संभव है कि यीशु दीनता के जीवन के बारे में बात कर रहा था, कि "बड़ा होने का मार्ग" "छोटे होते जाने" में है। हमारे लिए उसका उदाहरण यह था कि जब दुश्मन हमारे ऊपर बलवंत था, तो परमेश्वर का मार्ग प्रतिशोध का नहीं बल्कि स्वयं को पिता के आधीन करने का था।

 

यह पवित्रशास्त्र में भी एक सुंदर सत्य है कि परमेश्वर द्वारा कलीसिया को दिया गया जीवन प्रभु यीशु में दाने के रूप में आया था। भूमि पर लगाया गया बीज प्रभु यीशु के आपके और मेरे पाप ढोते हुए उसे क्रूस पर स्थापित करने के बारे में बताता है। यदि यीशु क्रूस पर एक विकल्प के रूप में नहीं मरा होता, तो उसका जीवन कुछ ही लोगों को प्रभावित करता। लेकिन, यह सवाल पूछा जा सकता है, "मसीह के लिए इतनी क्रूर और हिंसक मृत्यु मरने की आवश्यक्ता क्यों थी? निश्चित रूप से, पिता अपने पुत्र के लिए एक आसान मृत्यु की योजना बना सकता था?" इसका उत्तर, मेरा मानना ​​है, यह है; केवल एक हिंसक मृत्यु ही पाप को उस तरह उजागर कर सकती थी जिस तरह से प्रकट होने की आवश्यक्ता उसे थी। एक उपदेशक ने कहा, " अगर वह अपने बिस्तर, या दुर्घटना से या बीमारी से मारा गया होता, तो क्या यीशु पाप को उसके भयानक रूप में उजागर कर पाता?" यह मानव जीवन की त्रासदियों में से एक है कि हम पाप की विनाशकारी और बदसूरत प्रकृति को पहचानने में विफल रहते हैं। परमेश्वर की योजना मसीह के उन सभी के लिए एक विकल्प के रूप में मरने की लिए थी जो क्रूस पर मसीह के कार्य में अपना विश्वास रखेंगे, अर्थात, उनके लिए उसकी मृत्यु, पाप के लिए प्रायश्चित करने और हमें परमेश्वर के साथ शांति में लाने के लिए। इतिहास में पाए गए इस प्रकार की प्रतिस्थापन वैधता का एक और उदाहरण है;

 

ब्रिटेन और फ्रांस के बीच एक युद्ध के दौरान, पुरुषों को एक प्रकार की लॉटरी प्रणाली द्वारा फ्रांसीसी सेना में शामिल किया गया था। जब किसी का नाम निकला जाता, तो उसे युद्ध में जाना पड़ता। एक मौके पर, अधिकारी एक निश्चित व्यक्ति के पास आए और उससे कहा कि वह चुने गए लोगों में से एक था। उसने यह कह कर जाने से इनकार कर दिया कि "मुझे गोली मार दी गई थी और मैं दो साल पहले मारा गया हूँ।” पहले तो अधिकारी उसके मानसिक स्वास्थ्य पर प्रश्न उठाने लगे, लेकिन उसने जोर देकर कहा कि वास्तव में ऐसा ही था। उसने दावा किया कि सैन्य रिकॉर्ड दिखाएंगे कि वह युद्ध में मारा गया था। “ऐसा कैसे हो सकता है” उन्होंने सवाल किया। “तुम तो अभी जीवित हो!” उसने समझाया कि जब पहली बार उसका नाम निकला था, एक करीबी मित्र ने उससे कहा, "तुम्हारे पास एक बड़ा परिवार है, लेकिन मेरी शादी नहीं हुई है, और कोई मुझ पर निर्भर नहीं है। मैं तुम्हारा नाम और पता लेकर तुम्हारे स्थान पर चला जाउंगा। और वास्तव में रिकॉर्ड ने यही दर्शाया। यह असामान्य मामला नेपोलियन बोनापार्ट के पास ले जाया गया, जिन्होंने फैसला किया कि उस व्यक्ति पर देश का कोई कानूनी दावा नहीं। वह स्वतंत्र था। वह दूसरे व्यक्ति में मर चुका था।

 

परमेश्वर के दृष्टिकोण से, जब मसीह की मृत्यु हुई, तो वह आपके पाप के कारण शैतान के कानूनी दावों से आपको मुक्त करा आपके स्थान पर मरा। मसीह आपके लिए और आप बन कर मरा। परमेश्वर ने मसीह को आपकी जगह लेने के रूप में देखा जैसे एक आदमी दूसरे के स्थान पर युद्ध पर गया था। जब मसीह की मृत्यु हुई, तो परमेश्वर ने आपको भी मृत के रूप में देखा। पौलुस प्रेरित ने कुलुस्सियों की कलीसिया को अपने पत्र में इन सत्यों को समझाया ;

जबकि तुम मसीह के साथ संसार की आदि शिक्षा की ओर से मर गए हो, तो फिर उनके समान जो संसार में जीवन बिताते हैं मनुष्यों की आज्ञाओं और शिक्षानुसार और ऐसी विधियों के वश में क्यों रहते हो? (कुलुस्सियों 2:20)

 

1सो जब तुम मसीह के साथ जिलाए गए, तो स्वर्गीय वस्तुओं की खोज में रहो, जहाँ मसीह वर्तमान है और परमेश्वर के दहिनी ओर बैठा है। 2प्रथ्वी पर की नहीं परन्तु स्वर्गीय वस्तुओं पर ध्यान लगाओ। 3क्योंकि तुम तो मर गए, और तुम्हारा जीवन मसीह के साथ परमेश्वर में छिपा हुआ है। 4जब मसीह जो हमारा जीवन है, प्रगट होगा, तब तुम भी उसके साथ महिमा सहित प्रगट किए जाओगे। (कुलुस्सियों 3:1-4)

 

आइये दाने के भूमि में पड़ने पर क्या होता है इसके बारे में और गहराई से सोचें। जब तक बाहरी सतेह दरार पड़ खुल नहीं जाती तब तक उसकी कब्र का अन्धकार, समय और मिट्टी के तत्व दाने पर काम करते हैं, और फिर दाने के अंदर जीवन जड़ें डालता है और एक पौधा बनने के लिए बढ़ता है पुन: अन्य कई दाने उत्पन्न करने के लिए। अपनी मृत्यु, दफनाने और पुनरुत्थान के द्वारा, प्रभु यीशु हमें अपना जीवन देने आया। हमें अपने पूर्वज आदम से शारीरिक जीवन प्राप्त हुआ, लेकिन मसीह हमें परमेश्वर का जीवन प्रदान करने आया, और यह जीवन हमें तब दिया जाता है जब हम पूरी तरह से उसमें अपना विश्वास और भरोसा रखते हैं। जब हम विश्वास करते हैं, हमारे पाप धोए जाते हैं, और परमेश्वर का आत्मा हमें मसीह की देह के आत्मिक जीव में बपतिस्मा देता है (1 कुरिन्थियों 12:13)। परमेश्वर का जीवन हम में से प्रत्येक में बहता है जो विश्वास द्वारा उसके साथ जुड़े हुए हैं।

 

एक अलग सादृश्य में, यीशु संबंध के बारे में बात करता है कि वह दाखलता है, और हम, जो मसीही हैं, डालियाँ हैं। जब तक परमेश्वर का यह जीवन हमारे विश्वास द्वारा हम में और हमारे माध्यम से बहता है, तब तक दाखलता का सार दूसरों तक पहुँच फल उत्पन्न करता है (यहुन्ना 15:4)। उसके साथ बने रहना कुंजी है। पौलुस इस बारे में बात करता है कि यह रहस्य कैसे पीढ़ियों तक यहूदी लोगों से छिपा रहा (1 कुल्लुस्सियों 26-27), लेकिन अब, प्रेरितों और प्रारंभिक कलीसिया के माध्यम से, नए बीज प्रकट होने लगे हैं। जब पैन्तेकूस्त के दिन परमेश्वर का आत्मा सामर्थ्य में आया, तो क्रूस पर दिए गए बीज के पहले पौधे उन पहले तीन हजार लोगों में बहने लगे। मसीह सभी मनुष्यों के मंदिर में रहने लगा, यानी, वह यहूदी और गैर-यहूदी जो सम्पूर्ण हृदय से उसे खोजेंगे। प्रेरित पौलुस ने लिखा, "क्या तुम नहीं जानते, कि तुम्हारी देह पवित्रात्मा का मन्दिर है; जो तुम में बसा हुआ है और तुम्हें परमेश्वर की ओर से मिला है, और तुम अपने नहीं हो?" (1 कुरिन्थियों 6:19)। शुरुआती शिष्यों ने यह प्रकाशन दिया कि परमेश्वर अब मनुष्यों द्वारा बनाए गए पत्थर के मंदिरों में नहीं रहता है (प्रेरितों 7:48), लेकिन उन लोगों के हृदयों में जो प्रभु यीशु के सम्मुख घुटने को झुकाएंगे और अपने पूरे दिल से उसका अनुसरण करेंगे;

 

26अर्थात् उस भेद को जो समयों और पीढ़ियों से गुप्त रहा, परन्तु अब उसके उन पवित्र लोगों पर प्रगट हुआ है। 27जिन पर परमेश्वर ने प्रगट करना चाहा, कि उन्हें ज्ञात हो कि अन्यजातियों में उस भेद की महिमा का मूल्य क्या है? और वह यह है, कि मसीह जो महिमा की आशा है तुम में रहता है(कुलुस्सियों 1:26-27)

 

प्रश्न 3) पौलुस ने हमारे भीतर मसीह में भेद को "महिमा का मूल्य" और महिमा की अपेक्षा (आशा) का आत्मविश्वास कहा। हम पृथ्वी पर इन मूल्यवान बातों को कैसे समझना और अनुभव करना शुरू कर सकते हैं?

 

अपना क्रूस उठाने की बुलाहट

 

यही विचार कि यीशु वह बीज है जो उसे प्राप्त करने वाले हर किसी के लिए नया जीवन लेकर आता है, वह मुख्य प्रामाणिकता है जो यहुन्ना व्यक्त करना चाहता है, लेकिन इसी तरह, मसीह यीशु में रहने वाले सभी को भी अपने आप के प्रति मरना होना ताकि मसीह हमारे भीतर और हमारे द्वारा जी सके। चूंकि गेहूं के बीज को जमीन में लगाया जाता है, इसलिए बीज को अपना खोल खोलना चाहिए और अपने आप को नाश करना चाहिए ताकि हमारे भीतर जो जीवन है, हम में मसीह, दूसरों को दिया जा सके।

 

हम यीशु की मृत्यु को अपनी देह में हर समय लिये फिरते हैं; कि यीशु का जीवन भी हमारी देह में प्रगट हो। (2 कुरिन्थियों 4:10)

 

मसीही होने के नाते, जबकि हम अपने जीवन को थामे रहते हैं और केवल अपनी खुशी और आराम के लिए अपने जीवन जीते हैं, तो मसीह के लिए कम से कम फलदायी होंगे। इस जीवन को एक युवा पीढ़ी के ऊपर असर छोड़ने के लिए, स्वैच्छिक रूप से अपने क्रूस को उठा लेने की आवश्यकता होती है ताकि यीशु के जीवन को हमारे द्वारा प्रकट किया जा सके। आप अपने परिवार के लिए या यहाँ तक ​​कि अपने पति या पत्नी के लिए भी क्रूस नहीं उठा सकते। हम सभी को अपने लिए यह हद तय करनी होगी कि हम किस हद तक अपने जीवन से फल उत्पन्न करना चाहते हैं। आप में से जिनके पति या पत्नी हैं, और बच्चों को भी, मिलकर यह निर्धारित करना होगा कि आप अपने जीवन के साथ बलिदान की किस हद तक जाएंगे। अपनी पत्नी सैंडी से शादी करने से पहले, मैं उसके साथ बैठा और उसे उन चीजों के बारे में बताया जो मेरे दिल में थीं। हमने 1980 में अपनी शादी के बाद से एक साथ वैसा ही जीवन जिया है जैसा हम तब सहमत हुए थे। मैंने उन्हें कठिनाई और कड़ी तंगी का वादा किया, लेकिन साथ ही अपने प्रेम और विश्वास का वादा भी किया था। क्रूस उठाकर मसीह के लिए फलदायी होने की बुलाहट आसान नहीं है, लेकिन यही वह है जिसे हमें प्रभु यीशु के चेलों के रूप में करने के लिए बुलाया जाता है। उसने मरकुस के सुसमाचार में इसे हमारे लिए स्पष्ट किया;

 

उसने भीड़ को अपने चेलों समेत पास बुलाकर उन से कहा, “जो कोई मेरे पीछे आना चाहे, वह अपने आपे से इन्कार करे और अपना क्रूस उठाकर, मेरे पीछे हो ले”। (मरकुस 8:34)

 

वह क्रूस जिसे यीशु अपनी कलीसिया को लेने के लिए बुलाता है वह स्वयं के प्रति मृत होने की बुलाहट है। इस विषय पर, लेखक ग्रांटओसबोर्न कहते हैं;

 

क्रूस उठा लेना एक बहुत ही विशिष्ट रूपक था; जब रोमि यीशु या किसी और को क्रूस पर चढ़ाये जाने के स्थान तक अपना क्रूस उठवाते, तो वे उन्हें एक संदेश दे रहे थे: "तुम तो पहले से ही मर चुके हो!" क्रूस उठा लेने का अर्थ अपने जीवन को इस दुनिया की चीज़ों के प्रति मृत कर देना है। वह व्यक्ति "अनंतकाल के लिए (अपना जीवन) रखेगा" (यहुन्ना 12:25)। शिष्यों को अपने गुरु की तरह बनना चाहिए; मृत्यु जीवन का मार्ग है।

 

यहुन्ना की पुस्तक में अपने खंड पर वापस आते हुए, यीशु चेलों को यह कहकर अपने विचारों को आगे बढ़ाता है;

 

25जो अपने प्राण को प्रिय जानता है, वह उसे खो देता है; और जो इस जगत में अपने प्राण को अप्रिय जानता हे, वह अनन्त जीवन के लिये उसकी रक्षा करता करेगा। 26यदि कोई मेरी सेवा करे, तो मेरे पीछे हो ले; और जहाँ मैं हूँ वहाँ मेरा सेवक भी होगा; यदि कोई मेरी सेवा करे, तो पिता उसका आदर करेगा।” (मरकुस 12:25-26)

 

उपरोक्त पदों में “प्राण” (रेखांकित) शब्द के पहले दो उदाहरण, यूनानी शब्द साइकि है, जिसका अर्थ भौतिक जीवन या स्वयं का जीवन है। यीशु यह कह रहा है कि यदि आप इस संसार में अपने जीवन से प्रेम करते हैं और केवल अपने आप को प्रसन्न करने के लिए उन्मुख हैं, यानी आत्म-संपूर्णता या आत्म-विलासी, जो स्वार्थीपन है। आपके मनफिराव के समय, मसीह के क्रूस पर हृदय का इस तरह का रवैया टूटना चाहिए था। जब हम मसीह के उदाहरण को देखते और उसका पालन करते हैं, तो हम विश्व व्यवस्था और शैतानी और दुष्ट आत्माओं की शक्तियों पर विजय प्राप्त करेंगे जिसके विरुद्ध हमारे प्रभु यीशु और उसके अनुयायी युद्ध कर रहे हैं। मैं आपको नए नियम में मसीह के शिष्यों के कई उदाहरण दे सकता हूँ जिन्होंने अपना क्रूस उठाया, लेकिन इसके बजाय, मुझे 1970 के दशक में रोमानिया देश में साम्यवाद का सामना करने वाले एक पासबान की प्रेरणादायक कहानी साझा करने दें:

 

रोमानिया के पासबान सोन

 

1977 की गर्मियों के बाद के दिनों में, रोमानिया साम्यवादी शासन के अधीन था जब एक बैपटिस्ट सेवक ने मरते हुए एक व्यक्ति के समान अपनी सारी सांसारिक चिंताओं को नकार दिया। अपनी पत्नी एलिजाबेथ के साहस से उत्साहित, पासबान सोन ने खुद को निश्चित शहीद होने के लिए तैयार किया। उन्हें एक गुमनाम रोमानियाई होटल के रेस्तरां में गुप्त पुलिस के एक अधिकारी से मिलना था। साम्यवादी अधिकारी ने ऐसा करने का वचन दिया था जिसे गुप्त पुलिस के पिछले अधिकारी करने में नाकाम रहे थे; सोन की सेवकाई को इस वादे के बदले में शांत करना कि एक धर्मनिरपेक्ष नौकरी के बदले में वह कभी भी सुसमाचार का प्रचार नहीं करेगा। इस प्रस्ताव को ना करने का मतलब जेल में कड़ी मेहनत होगी। इसका अर्थ फांसी भी हो सकती थी। सोन ने आदमी से मुलाकात की और बिना झिझके नौकरी ठुकरा दी।

 

मैंने उस आदमी से कहा, "अब मैं मरने के लिए तैयार हूँ," सोन ने कहा। "तुमने कहा था कि तुम मुझे प्रचारक के रूप में खत्म करने जा रहे हो। मैंने अपने परमेश्वर से पूछा, और वह चाहता है कि मैं प्रचारक के रूप में जारी रहूँ। अब मुझे आप दोनों में से एक को क्रोधित करना है, और मैंने फैसला किया है कि बेहतर [होगा] कि परमेश्वर [को] क्रोधित करने के बजाय आपको करूँ। लेकिन मैं आपको जानता हूँ, महोदय; आप इस तरह के विपक्ष का सामना नहीं कर सकते, और आप मुझे किसी न

किसी तरीके से मार देंगे। लेकिन मैंने इसे स्वीकार कर लिया है, और आपको पता होना चाहिए कि मैंने सबकुछ व्यवस्थित भी कर लिया है और मरने के लिए तैयार हूँ। लेकिन जब तक मैं स्वतंत्र हूँ, मैं सुसमाचार का प्रचार करूंगा।”

 

साम्यवादी अधिकारी अपनी प्रतिक्रिया में उतना ही बेहिचक था: उसने सोन को जाकर सुसमाचार प्रचार करने को कहा। वह [अधिकारी] ने अपना मन बना लिया था कि अगर मैं इसके लिए मरने को तैयार था, तो मुझे मौत मिलनी चाहिए," सोन ने कहा।और चार सालों तक जब तक उन्होंने मुझे निर्वासित नहीं कर दिया, तब तक मैंने किसी के परेशान करे बिना प्रचार करना जारी रखा क्योंकि उस आदमी, गुप्त पुलिस के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति ने फैसला किया था कि मुझे प्रचार करने के लिए इसलिए स्वतंत्रता देनी चाहिए क्योंकि मैं इसके लिए मरने को तैयार था।उन्हें 1970 के दशक के दौरान रोमानिया में कई बार गिरफ्तार कर कैद किया गया और उन पर एक मसीही प्रचारक होने का आरोप लगाया गया। 1981 में देश से निर्वासित होने से पहले हर बार उन्होंने गहन पूछताछ, मार और दिमागी खेल के कई हफ्तों का सामना किया।

 

जब गुप्त पुलिस अधिकारी ने मुझे गोली मारने की धमकी दी, तो मैं मुस्कुराया, और मैंने कहा, "महोदय, क्या तुम समझते नहीं हैं कि जब तुम मुझे मारोगे, तो तुम मुझे महिमा में भेजोगे? तुम मुझे महिमा की धमकी नहीं दे सकते। जितनी अधिक पीड़ा, अधिक परेशानी, महिमा भी उतनी ही अधिक होगी। तो, क्यों कहें, 'इस परेशानी को रोको?' क्योंकि जितनी अधिक [पीड़ा], वहाँ उपर महिमा भी उतनी बढ़ती जाती है।” पूछताछ के एक विशेष रूप से परेशान करने वाले सत्र के दौरान, सोन ने अपने पूछताछकर्ताओं से कहा कि उसका खून बहाने से केवल यीशु मसीह के सुसमाचार के विकास को खींचा जाएगा। उसने सीखा था कि पीड़ा के धर्मशास्त्र का एक हिस्सा यह था कि विपत्ति कभी दुर्घटना नहीं होती है बल्कि वह अपनी कलीसिया के निर्माण के लिए परमेश्वर की सार्वभौमिक योजना का हिस्सा है।

 

मैंने पूछताछकर्ता से कहा, आपको पता होना चाहिए कि आपका मुख्य हथियार मृत्यु है। मेरा सर्वोच्च हथियार मरना है,'' सोन ने कहा। "यह ऐसे काम करता है, महोदय; आप जानते हैं कि मेरे उपदेश पूरे देश में टेप पर हैं। जब आप मुझे गोली मारते हैं या मुझे कुचलते हैं, चुनाव आपका है, [आप] केवल मेरे उपदेशों पर मेरा खून छिड़कते हैं। हर कोई जिसके पास मेरे उपदेशों में से एक का टेप है उसे उठाएगा और कहेगा, 'बेहतर होगा मैं इसे फिर से सुन लूँ। यह आदमी अपने दिए उपदेश के लिए मरा।' महोदय, मेरे उपदेश मुझे मारने के बाद क्योंकि तुमने मुझे मारा, दस गुना जोर से बोलेंगे। असल में, मैं इस देश को परमेश्वर के लिए जीत लूँगा क्योंकि तुमने मुझे मार डाला। आओ और ऐसा करो।" परमेश्वर के लिए मरना दुर्घटना नहीं है। यह त्रासदी नहीं है। यह हमारे कार्य का हिस्सा है। यह सेवकाई का हिस्सा है। और यह प्रचार का सबसे महान तरीका है।

 

सोन ने कहा कि उसने सीखा है कि मसीही दो प्राथमिक कारणों से पीड़ित होते हैं; सुसमाचार के गवाहों के रूप में और मसीह की कलीसिया को परिपूर्ण करने के लिए। उसने एक ब्रिटिश धर्मविज्ञानी द्वारा सिखाए एक बहुमूल्य सत्य के याद आने से प्रोत्साहित होने के बारे में बताया; मसीह का क्रूस पापों के प्रायश्चित के लिए था, लेकिन प्रत्येक मसीही के लिए क्रूस उठाने की बुलाहट सुसमाचार के प्रचार के लिए है।

 

यीशु व्याकुल हुआ

 

27अब मेरा जी व्याकुल हो रहा है। इसलिये अब मैं क्या कहूँ? “हे पिता, मुझे इस घड़ी से बचा?” परन्तु मैं इसी कारण इस घड़ी को पहुँचा हूँ। 28हे पिता अपने नाम की महिमा कर! तब यह आकाशवाणी हुई, “मैंने उसकी महिमा की है, और फिर भी करूँगा।” 29तब जो लोग खड़े हुए सुन रहे थे, उन्होंने कहा; कि बादल गरजा, औरों ने कहा, कोई स्वर्गदूत उस से बोला। 30इस पर यीशु ने कहा, “यह शब्द मेरे लिये नहीं परन्तु तुम्हारे लिये आया है। 31अब इस जगत का न्याय होता है, अब इस जगत का सरदार निकाल दिया जाएगा। 32और मैं यदि पृथ्वी पर से ऊँचे पर चढ़ाया जाउँगा, तो सब को अपने पास खींचूँगा।” 33ऐसा कहकर उसने यह प्रगट कर दिया, कि वह कैसी मृत्यु से मरेगा। 34इस पर लोगों ने उससे कहा, “हमने व्यवस्था की यह बात सुनी है, कि मसीह सर्वदा रहेगा, फिर तू क्यों कहता है, कि ‘मनुष्य के पुत्र को ऊँचे पर चढ़ाया जाना अवश्य है’? 35यह ‘मनुष्य का पुत्र’ कौन है? यीशु ने उनसे कहा, “ज्योति अब थोड़ी देर तक तुम्हारे बीच में है, जब तक ज्योति तुम्हारे साथ है तब तक चले चलो; ऐसा न हो कि अन्धकार तुम्हें आ घेरे; जो अन्धकार में चलता है वह नहीं जानता कि किधर जाता है। 36 जब तक ज्योति तुम्हारे साथ है, ज्योति पर विश्वास करो कि तुम ज्योति के सन्तान होओ।” ये बातें कहकर यीशु चला गया और उनसे छिपा रहा। (यहुन्ना 12:27-36)

 

प्रश्न 4) यीशु ने कहा कि वह क्रूस पर जाने के विचार से आंतरिक रूप से व्याकुल था। आपको लगता है कि उसके दिमाग में क्या विचार चल रहे होंगे?

 

जब हमारी अपनी प्राकृतिक प्रवृत्ति पाप की ओर होती है, तब हम पवित्र होने के लिए संघर्ष करते हैं। लेकिन, हमारे प्रभु यीशु के लिए यह पूरी तरह से अलग था। उसने कभी पाप को नहीं जाना था। वह हमेशा पवित्र रहा। वह एक कुंवारी और पवित्र आत्मा द्वारा जन्मा था। मसीह का गर्भधारण सामान्य तरीके से नहीं हुआ था, और इसलिए, उसने एक पापी प्रवृत्ति धारण नहीं की। वह अपने सम्पूर्ण जीवन पाप से मुक्त रहा ताकि वह हमारे लिए और हमारी जगह निर्दोष मेमने के रूप में मर जाए। प्रेरित पौलुस तीन साल से भी अधिक समय तक उसके आस-पास रहा था, और उसने मसीह के बारे में कहा; न तो उस ने पाप किया, और न उसके मुंह से छल की कोई बात निकली।(1 पतरस 2:22)

 

एक पवित्र जन होने के नाते, मसीह की अंदरूनी व्याकुलता यह विचार था कि वह पाप धारण करेगा और पाप का जीवित मूर्त रूप बनेगा। उसका प्रयास पाप के विरुद्ध नहीं था, बल्कि पाप के जीवित मूर्त रूप होना था जबकि उसकी पवित्रता का हर कण पाप के विरुद्ध रो रहा था। तेरी आँखें ऐसी शुद्ध हैं कि तू बुराई को देख ही नहीं सकता, और उत्पात को देखकर चुप नहीं रह सकता(हबाकुक 1:13)। उसकी स्वाभाविक प्रकृति, उसके आलौकिक प्राणी का हर आवेग, पाप से घृणा करना था, लेकिन फिर भी हमें पवित्र बनाने के लिए उसे पाप धारण करना पड़ा। उसका प्रेम कितना अद्भुत है! जो पाप से अज्ञात था, उसी को उस ने हमारे लिये पाप ठहराया, कि हम उस में होकर परमेश्वर की धार्मिकता बन जाएं(2 कुरिन्थियों 5:21)। वह क्रूस जो उसका इंतज़ार कर रही थी केवल एक शारीरिक पीड़ा ही नहीं थी, चाहे वह कितनी ही भयानक क्यों न हो। उसे अलगाव का सामना भी करना था। यीशु को अपनी पवित्रता को त्याग पाप को गले लगाना था, न केवल पाप, बल्कि सभी पाप, सभी समय का, और पूरी मानव जाति के लिए। यह पहली बार था जब यीशु को अपने पिता से अलग होने का अनुभव करना और पूरे संसार के पाप को उसे अपने उपर लेना था। वह हमारे लिए पाप बन गया।

 

पिता ने स्वयं उनके लिए जो मसीह के शब्दों को सुन रहे थे श्रव्य रूप से बात की (पद 28)। यीशु ने कहा कि यह आवाज उसे सुनने वाली भीड़ के लिए थी। पिता यह स्पष्ट कर रहा था कि वह अपने पुत्र की महिमा करने वाला है। समय निकट आ रहा था। तब प्रभु ने यह जानकर कि वह जल्द ही प्रस्थान करेगा, यह स्पष्ट किया कि उन्हें ज्योति में तब विश्वास करना चाहिए जबकि ज्योति उनके बीच थी। वह उन्हें और हमें "ज्योति के संतान" बनाना चाहता था, और वह पहले से ही उन लोगों के बारे में सोच रहा था जिन्हें वह पीछे छोड़ जा रहा था। उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण बात बारह के साथ शेष समय बिताना था। जब यीशु ने अपने शरीर का समर्पण कर दिया, तो उसने अपने पीछे ज्योति के संतानों को छोड़ा। अब, जैसा कि पिता ने कहा था, वह महिमामय है। हम, उसकी ज्योति की संतानें, उसकी महिमा में वैसे ही हिस्सा लेंगे जैसे हम जब हम यहाँ हैं, उसकी पीड़ा में भी भाग लेंगे। कुछ के पास पीड़ा का भारी भार होता है, लेकिन उनके पास महिमा का भारी भार भी होगा।

 

प्रार्थना: पिता, मैं प्रार्थना करता हूँ कि ज्योति की संतान के रूप में, आप हमें अंधकार में चमकने में मदद करें। हमें मसीह का वह आचरण दें ताकि हम अपने द्वारा किए गए सभी कार्यों में आपकी महिमा कर सकें। आमिन!

 

कीथ थॉमस

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