
13. Jesus, the Bread of Heaven
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13. यीशु स्वर्ग की रोटी
शुरुआती प्रश्न: वह सबसे कठिन काम क्या रहा है जो आपने अभी तक किया हो?
वह कार्य जिसकी आवश्यकता परमेश्वर को है
25और झील के पार उस से मिलकर कहा, हे रब्बी, तू यहाँ कब आया? 26यीशु ने उन्हें उत्तर दिया, कि मैं तुम से सच सच कहता हूँ, तुम मुझे इसलिये नहीं ढूंढ़ते हो कि तुम ने अचम्भित काम देखे, परन्तु इसलिये कि तुम रोटियाँ खाकर तृप्त हुए। 27नाशमान भोजन के लिये परिश्रम न करो, परन्तु उस भोजन के लिये जो अनन्त जीवन तक ठहरता है, जिसे मनुष्य का पुत्र तुम्हें देगा, क्योंकि पिता, अर्थात् परमेश्वर ने उसी पर छाप कर दी है। 28उन्होंने उस से कहा, परमेश्वर के कार्य करने के लिये हम क्या करें? 29यीशु ने उन्हें उत्तर दिया; परमेश्वर का कार्य यह है, कि तुम उस पर, जिसे उसने भेजा है, विश्वास करो। (यहुन्ना 6:25-29)
यहुन्ना के छठे अध्याय में, पाँच हज़ार लोगों को भोजन कराने के आश्चर्य कर्म के बाद, जो लोग वापस आ रहे थे वो इस बात से अचंभित थे कि यीशु कफरनहूम में है क्योंकि उन्होंने उसे पिछली शाम नाव में बैठते नहीं देखा था। (पद 25) वो उस सुबह आराधनालय में गए (यहुन्ना 6:59), और उस से इस विषय में प्रश्न पूछने लगे कि परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लिए उन्हें कितना कठिन परिश्रम करना होगा। उन्होंने कहा, “परमेश्वर के कार्य करने के लिये हम क्या करें?” (पद 28) उस आराधनालय में उस सुबह वही लोग थे जो एक दिन पहले उसके साथ थे, जिन्हें उसने रोटी और मछली खिलाई थी। उन लोगों को उसने कहा कि वो उसके पीछे केवल इसीलिए आ रहे हैं क्योंकि वह एक दिन पहले की तरह ही, दोबारा उसके द्वारा भोजन चाहते थे।
अगर यह मसीह है, उन्होंने सोचा, तो वचन कहता है कि वो मूसा जैसा होगा (निर्गमन 18:15), तो शायद वह उन्हें मूसा की तरह ही, प्रतिदिन स्वर्ग से मन्ना के द्वारा भोज कराएगा। (निर्गमन 16:45) क्या यह अद्भुत नहीं होगा! हफ्ते बाद हफ्ते खाने का खर्चा नहीं होना। यह सोचो कि हम कितना पैसा बचा सकते हैं! यीशु ने उन्हें तुरंत याद दिलाया कि वह परमेश्वर था जिसने उन्हे मन्ना दिया, न कि मूसा। मूसा का मन्ना प्राप्त करने में कोई योगदान नहीं था, सिर्फ इतना कि वह भी औरों की तरह ही उसे खाया करता था। यहाँ पर एक बार फिर हम मसीह के चरित्र को देखते हैं, कि वो परमेश्वर के हर कार्य के लिए सारी महिमा उसी को दिए जाने के लिए कितना लौलीन है। वो भीड़ को पिता की ओर केन्द्रित करना चाहता था कि वो पहचान लें कि वह वाकई में कौन है, क्योंकि यह तो स्वयं आश्चर्य-कर्म का गवाह ठहरने से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण था। यीशु उनकी मंशाओं को चुनौती देना चाहता था। वो उससे सुनने के लिए क्यों आए थे? वहाँ ऐसे भी थे जो शारीरिक रूप से भूखे नहीं थे, लेकिन एक “आत्मिक अनुभव” के भूखे थे। येशु चाहता था कि वो जान लें कि वह ही वो अनुभव है, वो जीवन है जिसकी लालसा वह रखते हैं।
उनके एक दिन पहले की तरह अपने प्रतिदिन के भोजन के लिए उसके पीछे आने में उसका हृदय उनके लिए मार्मिक हो गया। उसने कहा, “27नाशमान भोजन के लिये परिश्रम न करो, परन्तु उस भोजन के लिये जो अनन्त जीवन तक ठहरता है” (पद 27) बिलकुल वैसे ही जैसे एक अच्छा भोज खाने से एक व्यक्ति को अंदर से तृप्ति महसूस होती है, उसी तरह से, मुझे भी अपनी जान लगा उन बातों के पीछे चलने में परिश्रम करना है जो वाकई में हमारे प्राण को तृप्त करेंगी – स्वयं मसीह और उसका वचन। इस भोजन के बिना जो अनंत जीवन तक बना रहता है, हम अपने आप में खोखले और असंतुष्ट हैं। हमारा झुकाव ज्यादा समय अपने आप को और बड़ा बंगला और नई-नई गाड़ियां देने के व्यावसायिक परिश्रम में समय बिताने का है, लेकिन यह प्रकाशितवाक्य में लौदीकिया की कलीसिया के विषय में लिखी आत्मिक दरिद्रता ही है। जब मसीह ने इस बात का उनसे सामना कराया कि वो गुनगुने हैं, उन्होंने उन्हें उनकी सच्ची अवस्था उसी रीती से बताई जैसे वो उन्हें देखता है:
तू जो कहता है, कि ‘मैं धनी हूँ, और धनवान हो गया हूँ, और मुझे किसी वस्तु की घटी नहीं’, और यह नहीं जानता, कि तू अभागा और तुच्छ और कंगाल और अन्धा, और नंगा है। (प्रकाशितवाक्य 3:17)
परमेश्वर ही हमें बचाए, यदि जब हम स्वर्ग पहुँचें तब इस बात को जानें कि हम तो परमेश्वर की बातों में निर्धन हैं क्योंकि हमने तो अपना समय प्रतिदिन के कार्यों में बिताना मूल्यवान जाना है, हम में से कई परमेश्वर की बातों में समृद्ध होने की चेष्टा रखने के बजाय मेज़ पर केवल रोटी कमाने से कहीं आगे बढ़ जाते हैं। यही बात है जिसे मैं एक व्यावसायिक मछवारे के रूप में पहचानने लगा। मैं इतने घंटों अपनी ज़रूरत से ज्यादा या खर्चने की क्षमता के बाहर पैसे के लिए क्यों कार्य कर रहा था? मैं इतने जोखिम क्यों उठा रहा था? मैंने महीनों छुट्टी लेकर अपने प्राण की आवश्यकताओं को खोजने का चुनाव किया। वहाँ कुछ लापता था, जीवन की पहेली का एक अगम पहलु, एक खालीपन जिसे मैं समझ नहीं पा रहा था।
मेरी अंदरूनी कलह और खालीपन के लक्षण यह थे कि मुझे तब तक विश्राम नहीं प्राप्त हुआ जब तक मुझे वो नहीं मिल गया जिसकी खोज में मैं था। यह परमेश्वर की ओर से उपहार था और मेरे प्राण के लिए भली बात। यही बात थी जिसने मुझे उसकी खोज में जो मुझमें नहीं था, पूरे विश्व में यात्रा करने के लिए प्रेरित किया। जब मैं 15 वर्ष का था, मैंने सोचा कि मेरे जीवन में मुझे तृप्ति तब मिलेगी जब मैं उस समूह में शामिल हो जाउँगा जो हासिल करने वालों का समूह है, और तब मुझे सचमुच महसूस होगा कि मैंने हासिल कर लिया है। इसने मेरे अंदरूनी खालीपन को तृप्त नहीं किया। फिर यह एक गर्लफ्रेंड होना हुआ, और फिर गर्लफ्रेंड को पीछे बैठा घूमने के लिए एक मस्त मोटरसाइकिल के बारे में। फिर एक कार, एक घर, यहाँ तक कि अपने भाई के साथ मछली पकड़ने के लिए अपनी एक नाव। जब इन चीज़ों ने भी तृप्त नहीं किया, तो फिर नशा और फिर विश्व यात्रा, लेकिन किसी चीज़ ने भी मेरी अंदरूनी भूख और प्यास को तृप्त नहीं किया।
इंग्लैंड के राजकुमार, चार्ल्स ने एक बार अपनी एक धारणा के बारे में कहा था, “विज्ञान की सभी प्रगतियों के बावजूद, फिर भी प्राण की गहराई में, अगर मैं साहसिक होकर इस शब्द का प्रयोग करूँ, निरंतर एक अनजानी सी व्याकुलता कार्य करती रहती है, कि कुछ तो कमी है, कुछ ऐसा अंश जो जीवन को जीने लायक बनता है।” बर्नार्ड लेविन, शायद अपनी पीढ़ी के सबसे महान स्तंभकार ने एक बार अपने जीवन में इस खालीपन के बारे में लिखा। उन्होंने कहा:
“हमारे जैसे देशों में ऐसे लोग भरे पड़े हैं जिनके पास उन सभी अ-भौतिक आशीषों जैसे खुश परिवार के साथ उनकी इच्छा के सभी भौतिक आराम हैं, लेकिन फिर भी एक शांत सी, कई बार हो-हल्ला भरा या मायूसी का जीवन जीते हैं, इस बात को समझते हुए कि उनके भीतर एक ऐसा खालीपन है कि भले ही वो उसमें कितना भी खाना और पानी उड़ेल दें, कितनी ही गाड़ियाँ या टी.वी वो उसमें ठूंस दें, कितने ही संभ्रांत बच्चे और निष्ठावान मित्र वो उसके चारों ओर प्रदर्शित करें.... वहाँ पीड़ा है”1
क्या आपने कभी अंदरूनी कलह को अनुभव किया है? एक “अंदरूनी खालीपन” का विवरण देने के लिए आप किन शब्दों का उपयोग करेंगे? आपने किस प्रकार इस खालीपन को भरने की कोशिश करी है?
कई लोगों के लिए, यह खालीपन उन्हें और ज्यादा परिश्रान करने की ओर धकेलता है, इस विचार के साथ कि काम में सफलता उनके अंदरूनी खालीपन को तृप्त करेगी। मुझे याद है एक दिन जब मैं अपने पिता की नाव को अकेले चला रहा था (जो कि बहुत जोखिम भरा कार्य है), मैं आगे बढ़ ऐसे मछली पकड़ने के स्थान पर पहुँच गया जहाँ तक हम आम तौर पर नहीं जाते थे। अट्ठारह घंटों तक मैंने इतनी मछलिययाँ पकड़ीं जितनी कभी पहले नहीं पकड़ी थीं। मैंने तो हासिल कर लिया! अब मैं बड़ा पैसा कमा रहा था। अपनी सफलता पर मेरा उत्साह एक नशे सा महसूस हो रहा था कि मैं पूरी रात सो न पाया और पूरी रात इस सोच से मेरा दिमाग घूमता रहा कि कल रात मैं कैसे और बेहतर कर सकता हूँ कि और पैसा बना सकूँ। मैंने अपने आप को आयने में देखा और जो मैंने देखा वो मुझे पसंद नहीं
जैसा निक्की गुमबेल द्वारा कहा गया, क्वेशंस ऑफ़ लाइफ, कुक मिनिस्ट्री पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित। पृष्ठ 13
आया; लालच मेरे हृदय पर विराजमान था। कार्य-क्षेत्र में सफलता तृप्त नहीं करती है। यह सोचना धोखा है कि हम परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए कठिन परिश्रम कर सकते हैं।
यह लोग जो अब यीशु से बात कर रहे थे, उनके मनों में भी यही विचार थे: “परमेश्वर के कार्य करने के लिये हम क्या करें?” (पद 28) यीशु ने उत्तर दियाँ कि एकमात्र कार्य जो उनके प्राण को तृप्त करेगा वह उसपर विश्वास करना होगा जिसे पिता ने भेजा है – मसीह: 29यीशु ने उन्हें उत्तर दिया; “परमेश्वर का कार्य यह है, कि तुम उस पर, जिसे उसने भेजा है, विश्वास करो।” (पद 29) परमेश्वर ने जानबूझकर इसे इतना सरल बनाया है ताकि एक बालक भी मसीह के पास आए तो बचाया जा सके।
यीशु जीवन की रोटी
30तब उन्होंने उस से कहा, फिर तू कौन सा चिन्ह दिखाता है कि हम उसे देखकर तेरी प्रतीति करें, तू कौन सा काम दिखाता है? 31हमारे बापदादों ने जंगल में मन्ना खाया; जैसा लिखा है; कि उसने उन्हें खाने के लिये स्वर्ग से रोटी दी। 32यीशु ने उन से कहा, मैं तुम से सच सच कहता हूँ कि मूसा ने तुम्हें वह रोटी स्वर्ग से न दी, परन्तु मेरा पिता तुम्हें सच्ची रोटी स्वर्ग से देता है। 33क्योंकि परमेश्वर की रोटी वही है, जो स्वर्ग से उतरकर जगत को जीवन देती है। 34तब उन्होंने उस से कहा, हे प्रभु, यह रोटी हमें सर्वदा दिया कर। 35यीशु ने उन से कहा, जीवन की रोटी मैं हूँ: जो मेरे पास आएगा वह कभी भूखा न होगा और जो मुझ पर विश्वास करेगा, वह कभी प्यासा न होगा। 36परन्तु मैंने तुम से कहा, कि तुम ने मुझे देख भी लिया है, तोभी विश्वास नहीं करते। 37जो कुछ पिता मुझे देता है वह सब मेरे पास आएगा, उसे मैं कभी न निकालूँगा। 38क्योंकि मैं अपनी इच्छा नहीं, वरन अपने भेजनेवाले की इच्छा पूरी करने के लिये स्वर्ग से उतरा हूँ। 39और मेरे भेजनेवाले की इच्छा यह है कि जो कुछ उस ने मुझे दिया है, उसमें से मैं कुछ न खोऊं परन्तु उसे अंतिम दिन फिर जिला उठाऊं। 40क्योंकि मेरे पिता की इच्छा यह है, कि जो कोई पुत्र को देखे, और उस पर विश्वास करे, वह अनन्त जीवन पाए; और मैं उसे अंतिम दिन फिर जिला उठाऊंगा। 41सो यहूदी उस पर कुड़कुड़ाने लगे, इसलिये कि उसने कहा था; कि जो रोटी स्वर्ग से उतरी, वह मैं हूँ। 42और उन्होंने कहा; क्या यह यूसुफ का पुत्र यीशु नहीं, जिसके माता पिता को हम जानते हैं? तो वह क्यों कहता है कि मैं स्वर्ग से उतरा हूँ। (यहुन्ना 6:30-42)
केवल मसीह ही इस खालीपन को भर सकता है जो हमारे भीतर गहराई में है।
“क्योंकि परमेश्वर की रोटी वही है, जो स्वर्ग से उतरकर जगत को जीवन देती है।” (पद 33)
जब उन्होंने यह कहते हुए ऐसी रोटी की कामना ज़ाहिर करी, “हे प्रभु, यह रोटी हमें सर्वदा दिया कर” (पद 34), उनके शब्द इस बात को प्रकट करते हैं कि वो किसी ऐसे दैनिक भोजन की आशा कर रहे थे जो मूसा के समय में मन्ना की तरह ही उनके पास रोजाना आएगा। लेकिन यीशु आत्मिक सन्दर्भ में बात कर रहा है:
यीशु ने उन से कहा, “जीवन की रोटी मैं हूँ: जो मेरे पास आएगा वह कभी भूखा न होगा और जो मुझ पर विश्वास करेगा, वह कभी प्यासा न होगा। (यहुन्ना 6:35)
उन दिनों में रोटी इजराइल का प्रधान भोजन का स्रोत था। मैं और मेरी पत्नी सैंडी क्रिस्टीन नामक ऑस्ट्रलियाई महिला के साथ कई महीनों इजराइल में रहे हैं। उनका विवाह बारा नामक जापानी पुरुष से हुआ था, जो कि अब इजराइल में भ्रमण के एक पंजीकृत मार्गदर्शक हैं। भले ही बारा का पेट कितना भरा हो, लेकिन अगर उन्होंने अपने भोजन में चावल नहीं खाए, तो उन्होंने खाना खाया ही नहीं। एक प्रकार से ऐसा था कि उनके पास दो पेट थे – अगर उनके चावल वाले पेट को खिलाया न गया हो, वो अब भी भूखे होते, और उन्हें मीट और आलू का बड़ा भोजन करने के बाद भी चावल बनाने पड़ते। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि भोजन कितना बड़ा हो, अगर उन्होंने चावल नहीं खाए, तो तृप्ति नहीं होगी। हमारे भीतर, गहराई में एक और पेट है जिसे आत्मिक भोजन की आवश्यकता है। यीशु ने कहा, “जीवन की रोटी मैं हूँ” मैं ही वह हूँ जो खाली “आत्मिक पेट” को भरता हूँ। अगर प्रभु एक जापानी व्यक्ति से बात कर रहा होता, तो शायद यह कहता, “मैं जीवन का चावल हूँ”। केवल मसीह ही हमारे आत्मिक पेट भर सकता है। वो प्राण का प्रधान भोजन है।
यहाँ उपर के वचन में (पद 35), हमारे पास इस बात का निचोड़ है कि कैसे हम एक मसीही जन बनकर अपने हृदय के खालीपन को भर सकते हैं। यह आत्मिक रीती से उसके जीवन का भोज करना है। यह मसीह में आना और उसपर विश्वास या भरोसा करना है। इस रोटी को खाने का अनुभव इतना इस बारे में बात नहीं है कि हम अपने जीवनकाल में इससे एक बार खा लें, कि हम मसीह को अपने जीवन में आमंत्रित कर नया जीवन पा लें, लेकिन प्रतिदिन मसीह में भोज करना, जब हम उसमें जीवन जीते हैं, तब हम उसके स्वरुप और समानता में ढलते जाएँ। इजराइलियों का प्रतिदिन मरुस्थल में मन्ना खाना केवल भविष्य की उस सच्चाई की तस्वीर है जो मसीह हमारी मेज़ पर उपलब्ध कराएगा। प्रेरित पौलुस इसे इस प्रकार लिखता है, परन्तु जब हम सब के उघाड़े चेहरे से प्रभु का प्रताप इस प्रकार प्रगट होता है, जिस प्रकार दर्पण में, तो प्रभु के द्वारा जो आत्मा है, हम उसी तेजस्वी रूप में अंश अंश कर के बदलते जाते हैं। (2 कुरिन्थियों 3:18) जब हम आत्मिक रीती से मसीह पर भोज करते हैं और ठीक उसी तरह जैसे डाली दाखलता से जीवन सींचती हैं, जब हम उसकी सामर्थ और जीवन से अपने लिए जीवन सींचते हैं, हम भीतरी रूप से रूपांतरित होते चले जाते हैं। इस दाखलता के उदहारण का प्रयोग कर, यीशु ने कहा:
4तुम मुझ में बने रहो, और मैं तुम में: जैसे डाली यदि दाखलता में बनी न रहे, तो अपने आप से नहीं फल सकती, वैसे ही तुम भी यदि मुझ में बने न रहो तो नहीं फल सकते। 5 “में दाखलता हूँ: तुम डालियाँ हो; जो मुझ में बना रहता है, और मैं उस में, वह बहुत फल फलता है, क्योंकि मुझ से अलग होकर तुम कुछ भी नहीं कर सकते।“ (यहुन्ना 15:4-5)
जब हम नया जन्म लेकर मसीह में नए जीवन का उपहार ग्रहण करते हैं, तब परमेश्वर हमसे एक आत्मिक सम्बन्ध स्थापित करता है। परमेश्वर का आत्मा आकर हम में वास करता है और हमें इस सम्बन्ध को बनाए रखने में मदद करता है, परमेश्वर से आत्मिक जीवन के संचार को, एक जीवनधारा जो हमें यह एहसास देती है कि मेरे प्राण के साथ सब भला है। हम आत्मा को अपने जान-बूझकर किये पापों के द्वारा शोकित कर सकते हैं (इफिसियों 4:30), और अपने आप को उसकी ताड़ना के लिए खुले रखते हैं (इब्रानियों 12:8-10), लेकिन एक बार हमने उससे यह सम्बन्ध स्थापित कर लिया है, हम कभी भूखे और प्यासे नहीं रहेंगे। (पद 35) जब से मैं मसीह में आया, मैंने और कुछ नहीं खोजा। मुझे एकदम यह पता था कि यह वही है जिसे मैं खोज रहा हूँ। परमेश्वर के लिए मेरी अंदरूनी भूख और प्यास तृप्त हो गई थी, और आपकी भी हो सकती है, अगर अभी तक न हुई हो तो। टीकाकार आर. केंट हुघेस, मसीह के जीवन की रोटी होने के बारे में यह कहते हैं:
मन्ना और यीशु, “जीवन की रोटी”, में कई समानताएं हैं। मन्ना यीशु का प्रतीक है, क्योंकि यह गिरी हुई बर्फ की तरह सफ़ेद था, ठीक वैसा ही जैसा मसीह था, निष्कलंक और सिद्ध। मन्ना को पाना सुलभ भी था। यह उसके मुख्य गुणों में से एक था। जब एक व्यक्ति उसे लेने छावनी से बाहर निकलता तो उसके पास चुनाव था। या तो वो उसे कुचल दे या उसे उठा ले। हम भी या तो यीशु को कुचल सकते हैं या उसे उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार कर सकते हैं। अगर और शब्दों में कहें, तो वचन हमें बताता है कि यीशु या तो कोने के सिरे का पत्थर हो सकता है या ठोकर का कारण। फर्क इस बात का है कि हम उसे कैसा प्रतिउत्तर देते हैं।
परमेश्वर की खींचने की सामर्थ
43यीशु ने उनको उत्तर दिया, कि आपस में मत कुड़कुड़ाओ। 44कोई मेरे पास नहीं आ सकता, जब तक पिता, जिस ने मुझे भेजा है, उसे खींच न ले; और मैं उस को अंतिम दिन फिर जिला उठाऊंगा। 45भविष्यद्वक्ताओं के लेखों में यह लिखा है, कि वे सब परमेश्वर की ओर से सिखाए हुए होंगे। जिस किसी ने पिता से सुना और सीखा है, वह मेरे पास आता है। 46यह नहीं, कि किसी ने पिता को देखा परन्तु जो परमेश्वर की ओर से है, केवल उसी ने पिता को देखा है। 47मैं तुम से सच सच कहता हूँ, कि जो कोई विश्वास करता है, अनन्त जीवन उसी का है। 48जीवन की रोटी मैं हूँ। 49तुम्हारे बापदादों ने जंगल में मन्ना खाया और मर गए। 50यह वह रोटी है जो स्वर्ग से उतरती है ताकि मनुष्य उस में से खाए और न मरे। 51जीवन की रोटी जो स्वर्ग से उतरी मैं हूँ। यदि कोई इस रोटी में से खाए, तो सर्वदा जीवित रहेगा और जो रोटी मैं जगत के जीवन के लिये दूंगा, वह मेरा मांस है। 52इस पर यहूदी यह कहकर आपस में झगड़ने लगे, कि यह मनुष्य कैसे हमें अपना मांस खाने को दे सकता है? (यहुन्ना 6:43-52)
मेरे किशोरावस्था के अंतिम दिनों और शुरुआती बीसवें सालों में, मेरे पास जीवन के रहस्य के विषय में कई प्रश्न थे, ख़ास तौर पर इंग्लैंड के पूर्वी तट पर एक व्यावसायिक मछ्वारा होते हुए – वो कई मौत के करीब परिस्थितियों में जिनका सामना मैंने किया। मेरे पास अक्सर यह प्रश्न हुआ करता था कि क्या मैं मृत्यु के पश्चात् जीयूँगा या नहीं, और वह जीवन कैसा होगा। मेरी आत्मिक भूख इस हद तक बढ़ गई कि मैं जीवन के इन उत्तरों को तत्वज्ञान में ढूँढने लगा, लेकिन इसने कभी मेरी कचोट देने वाली आत्मिक भूख को तृप्त नहीं किया। अपने पिता के लिए काम करने ने मुझे काम से लम्बे समय तक छुट्टी लेना संभव किया, जबकि मेरे पास मेरा काम करने वाला कोई अनुभवी व्यक्ति होता। मैंने यात्रा करना शुरू कर दिया और लगभग दो वर्षों के समय में बौद्ध और हिन्दू धर्म को यह सोचते हुए खोजा कि शायद यह धर्म मेरे जीवन की पहेली में गुम कड़ी की लालसा तृप्त करें। कुछ तो लापता था और भले ही मैं कहीं भी चला जाऊं, वह मेरी पकड़ से बाहर रहता।
मैं समूचे यूरोप, एशिया, उत्तरी अफ्रीका में भी गया, और अंतत: यात्रा कर दक्षिणी और उत्तरी अमरीका पहुँचा। जब कभी मसीही धर्म को खोजने के विचार मुझे आते, मैं उन्हें अपनी इस मान्यता के कारण कि यह तो किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में है जो दो हज़ार पूर्व एक शहीद की मौत मर था, तुरंत इसे ख़ारिज कर देता। मैंने इस कहे जाते सुना था कि “एक व्यक्ति को केवल विश्वास करना है”। लेकिन यह तो मेरे लिए कुछ ज्यादा ही सरल था! मैं तो सब कुछ हासिल करने के लिए कठिन परिश्रम करने का आदि था, और सत्य के लिए मेरे उत्तर की लालसा ने मुझे इस धोखे भरी सोच में धकेल दिया कि इसे पाने के लिए मुझे कठिन परिश्रम करना होगा, कि इसे “हासिल करना” पड़ेगा। मैं सोचता था कि यह या तो कीमती होगा या बहुत दूर! एक आत्मिक व्यक्ति होने की मेरी धारणा कभी न हासिल होने वाला लक्ष्य प्रतीत हो रहा था। मैं संसार के रहस्यों को समझना चाहता था, लेकिन महसूस करता था कि यह संभवत: ऐसा नहीं हो सकता जिसे इतनी सरलता से हासिल किया जा सके, लेकिन फिर भी जब मैं बाइबिल पढ़ता, यीशु ऐसे सत्यों को प्रस्तुत करता जिन्हें एक बच्चा भी समझ सकता है। क्या यह इतना सरल हो सकता है? केवल ‘विश्वास’: करना तो उस सब से बिलकुल विपरीत था जो मैंने अभी तक जीवन में सीखा था। मेरी समस्या यह थी कि मैं नहीं जानता था कि परमेश्वर कैसा है – यह कि वो एक प्रेमी और देने वाला है, और कि एकमात्र वही है जो मेरे प्राण की भूख को तृप्त कर सकता है, और आपकी भी, क्योंकि वो स्वर्ग की रोटी है।
यह एहसास मुझे मसीह में आने के बाद ही हुआ कि परमेश्वर का आत्मा मुझे खींच रहा था, और यही कारण था कि मेरे भीतर इतनी गहरी लालसा थी। यीशु इस खींचने की समर्थ का इस प्रकार विवरण देता है:
जो कुछ पिता मुझे देता है वह सब मेरे पास आएगा, उसे मैं कभी न निकालूँगा। (यहुन्ना 6:37)
कोई मेरे पास नहीं आ सकता, जब तक पिता, जिस ने मुझे भेजा है, उसे खींच न ले; और मैं उस को अंतिम दिन फिर जिला उठाऊंगा। (यहुन्ना 6:44)
जब आप मसीह में आए (अगर आप मसीही हैं) यह इसलिये हुआ क्योंकि आपको किसी ऐसी रीती से खींचा गया था जिसे आप शायद समझ न पाएं। यह कोई मित्र हो सकता है जिसका जीवन “अलग सा” हो। यह कोई ऐसा सन्देश हो सकता है जिसने दिल पर गहरा असर डाला हो। यह एक गहरी असंतुष्टि हो सकती है जिसके बारे में हमने बात की है। यह कोई पुस्तक हो सकती है जिसे आपने पढ़ा हो जिसमें एक वाक्य से आपका माथा ठनका हो और इसने आपको जैसे अपने जाल में जकड़ लिया हो; यह आपके प्राण में घर कर गया हो और फिर बस मसीह में आपका “खिंचे चले आना” तो होना ही था। यह सब मसीह के लिए आपको आत्मा द्वारा खींचे जाने के प्रमाण